Tuesday, July 13, 2010

घुमन्ता-फिरन्ता

बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
तब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में ऐसे
लाई-लून चबा के।
तुम्हारी यह चीलम-सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुयी चमड़ी के नीचे
घुड़े खूब तरौनी-गाथा।
तुम हो हमारे हितू, बुजरुक
सच्चे मेंठ
घुमन्ता-फिरन्ता उजबक्-चतुर
मानुष ठेंठ।
मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।

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