Tuesday, July 13, 2010

सिर्फ़ कवि नहीं

नहीं मान सकता मैं
कि ठंड से इनका कुछ न बिगड़ेगा
कि आग इन्हें तपा कर
झुलसा तक नहीं पाएगी,
कि हवा
केवल इनकी शाखों में
झूल कर रह जाएगी,
बरसात में
भींग गई है इनकी देह
इनका खड़ा रह पाना
कुछ मुश्किल लग रहा है,
बढ़इयों को चाहिए
कि इनके लिए गढ़ें
कमींज़,
तैयार करें इनके लिए
जूते,
वैसे भी ये
टोपी की माँग
अक्सर नहीं करते
मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ
समझ रहा हूँ
मौसम कुछ ठीक-ठाक नहीं है।

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