आसान नहीं है
मुझसे पार पाना
मैं जेठ की गरम लूक हूँ
और दिसम्बर की पाला-मार हवा।
मैं अंधेरे में झुका हुआ
केले का नरम पत्ता हूँ
जिसे चीर जाती है
उतावली हवा
मुहब्बत में।
मैं तमाम जंगलों से दूर
तन कर खड़ा बर का पेड़ हूँ
अपने गाँठों-भरे तने को फैलाता हुआ।
मैं गेहुएँ रंग का पत्थर हूँ
पर उस पर खुदा हुआ
झूठा बखान नहीं हूँ
आसान नहीं है
मुझसे पार पाना।
Tuesday, July 13, 2010
घुमन्ता-फिरन्ता
बाबा नागार्जुन !
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
तब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में ऐसे
लाई-लून चबा के।
तुम्हारी यह चीलम-सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुयी चमड़ी के नीचे
घुड़े खूब तरौनी-गाथा।
तुम हो हमारे हितू, बुजरुक
सच्चे मेंठ
घुमन्ता-फिरन्ता उजबक्-चतुर
मानुष ठेंठ।
मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।
तुम पटने, बनारस, दिल्ली में
खोजते हो क्या
दाढ़ी-सिर खुजाते
तब तक होगा हमारा गुजर-बसर
टुटही मँड़ई में ऐसे
लाई-लून चबा के।
तुम्हारी यह चीलम-सी नाक
चौड़ा चेहरा-माथा
सिझी हुयी चमड़ी के नीचे
घुड़े खूब तरौनी-गाथा।
तुम हो हमारे हितू, बुजरुक
सच्चे मेंठ
घुमन्ता-फिरन्ता उजबक्-चतुर
मानुष ठेंठ।
मिलना इसी जेठ-बैसाख
या अगले अगहन,
देना हमें हड्डियों में
चिर-संचित धातु गहन।
निराला से
तुम्हारी आँखों में
मधुर आँच में क्या सिझ रहा है
जैसे कविता.....
जैसे बहुत कुछ।
क्या हुआ जो तुम मिले नहीं मुझसे
तुम्हारा अंधकार में दमकता
ललाट मैंने नहीं देखा
पछता नहीं रहा
तुम हुन्नरी थे
मेरे आदि आचार्य !
मैं भरम रहा हूँ
इधर-उधर, नार-खोह में
पौरुषहीन नहीं मैं,
तुम्हारा दिया बहुत कुछ है मेरे-पास
मैं भरमूँगा और पाऊँगा
जो चाहिए मुझे।
मेरे-तुम्हारे बीच
बहुत सारे चेहरे हैं झुलसे हुए
बहुत सारे दुखों के दुख हैं
ओ मेरे पुरनियाँ !
तुम्हारी आँखों में
क्या सिझ रहा है
मेरे लिए-उनके लिए
कविता.........
और बहुत कुछ।
मधुर आँच में क्या सिझ रहा है
जैसे कविता.....
जैसे बहुत कुछ।
क्या हुआ जो तुम मिले नहीं मुझसे
तुम्हारा अंधकार में दमकता
ललाट मैंने नहीं देखा
पछता नहीं रहा
तुम हुन्नरी थे
मेरे आदि आचार्य !
मैं भरम रहा हूँ
इधर-उधर, नार-खोह में
पौरुषहीन नहीं मैं,
तुम्हारा दिया बहुत कुछ है मेरे-पास
मैं भरमूँगा और पाऊँगा
जो चाहिए मुझे।
मेरे-तुम्हारे बीच
बहुत सारे चेहरे हैं झुलसे हुए
बहुत सारे दुखों के दुख हैं
ओ मेरे पुरनियाँ !
तुम्हारी आँखों में
क्या सिझ रहा है
मेरे लिए-उनके लिए
कविता.........
और बहुत कुछ।
सिर्फ़ कवि नहीं
नहीं मान सकता मैं
कि ठंड से इनका कुछ न बिगड़ेगा
कि आग इन्हें तपा कर
झुलसा तक नहीं पाएगी,
कि हवा
केवल इनकी शाखों में
झूल कर रह जाएगी,
बरसात में
भींग गई है इनकी देह
इनका खड़ा रह पाना
कुछ मुश्किल लग रहा है,
बढ़इयों को चाहिए
कि इनके लिए गढ़ें
कमींज़,
तैयार करें इनके लिए
जूते,
वैसे भी ये
टोपी की माँग
अक्सर नहीं करते
मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ
समझ रहा हूँ
मौसम कुछ ठीक-ठाक नहीं है।
कि ठंड से इनका कुछ न बिगड़ेगा
कि आग इन्हें तपा कर
झुलसा तक नहीं पाएगी,
कि हवा
केवल इनकी शाखों में
झूल कर रह जाएगी,
बरसात में
भींग गई है इनकी देह
इनका खड़ा रह पाना
कुछ मुश्किल लग रहा है,
बढ़इयों को चाहिए
कि इनके लिए गढ़ें
कमींज़,
तैयार करें इनके लिए
जूते,
वैसे भी ये
टोपी की माँग
अक्सर नहीं करते
मैं सिर्फ़ कवि नहीं हूँ
समझ रहा हूँ
मौसम कुछ ठीक-ठाक नहीं है।
सूर समर करनी करहिं
सर्वथा ही
यह उचित है
औ’ हमारी काल-सिद्ध, प्रसिद्ध
चिर-वीरप्रसविनी,
स्वाभिमानी भूमि से
सर्वदा प्रत्याशित यही है,
जब हमें कोई चुनौती दे,
हमें कोई प्रचारे,
तब कड़क
हिमश्रृंग से आसिंधु
यह उठ पड़े,
हुन्कारे–
कि धरती कँपे,
अम्बर में दिखाई दें दरारें।
शब्द ही के
बीच में दिन-रात बसता हुआ
उनकी शक्ति से, सामर्थ्य से–
अक्षर–
अपरिचित मैं नहीं हूँ।
किन्तु, सुन लो,
शब्द की भी,
जिस तरह संसार में हर एक की,
कमज़ोरियाँ, मजबूरियाँ हैं–
शब्द सबलों की
सफल तलवार हैं तो
शब्द निर्बलों की
पुंसक ढाल भी हैं।
साथ ही यह भी समझ लो,
जीभ को जब-जब
भुजा का एवज़ी माना गया है,
कण्ठ से गाया गया है
और ऐसा अजदहा जब सामने हो
कान ही जिसके न हों तो
गीत गाना–
हो भले ही वीर रस का वह तराना–
गरजना, नारा लगाना,
शक्ति अपनी क्षीण करना,
दम घटाना।
बड़ी मोटी खाल से
उसकी सकल काया ढकी है।
सिर्फ भाषा एक
जो वह समझता है
सबल हाथों की
करारी चोट की है।
ओ हमारे
वज्र-दुर्दम देश के,
विक्षुब्ध-क्रोधातुर
जवानो !
किटकिटाकर
आज अपने वज्र के-से
दाँत भींचो,
खड़े हो,
आगे बढ़ो;
ऊपर चढ़ो,
बे-कण्ठ खोले।
बोलना हो तो
तुम्हारे हाथ की दी चोट बोले !
बहुरि बंदि खलगन सति भाएँ...
खलों की (अ) स्तुति
हमारे पूर्वजन करते रहे हैं,
और मुझको आज लगता,
ठीक ही करते रहे हैं;
क्योंकि खल,
अपनी तरफ से करे खलता,
रहे टेढ़ी,
छल भरी,
विश्वासघाती चाल चलता,
सभ्यता के मूल्य,
मर्यादा,
नियम को
क्रूर पाँवों से कुचलता;
वह विपक्षी को सदा आगाह करता,
चेतना उसकी जगाता,
नींद, तंद्रा, भ्रम भगाता
शत्रु अपना खड़ा करता,
और वह तगड़ा-कड़ा यदि पड़ा
तो तैयार अपनी मौत की भी राह करता।
आज मेरे देश की
गिरि-श्रृंग उन्नत,
हिम-समुज्ज्वल,
तपःपावन भूमि पर
जो अज़दहा
आकर खड़ा है,
वंदना उसकी
बड़े सद्भाव से मैं कर रहा हूँ;
क्योंकि अपने आप में जो हो,
हमारे लिए तो वह
ऐतिहासिक,
मार्मिक संकेत है,
चेतावनी है।
और उसने
कम नहीं चेतना
मेरे देश की छेड़ी, जगाई।
पंचशीली पँचतही ओढ़े रज़ाई,
आत्मतोषी डास तोषक,
सब्ज़बागी, स्वप्नदर्शी
योजना का गुलगुला तकिया लगाकर,
चिर-पुरातन मान्यताओं को
कलेजे से सटाए,
देश मेरा सो रहा था,
बेखबर उससे कि जो
उसके सिरहाने हो रहा था।
तोप के स्वर में गरजकर,
प्रध्वनित कर घाटियों का
स्तब्ध अंतर,
नींद आसुर अजदहे ने तोड़ दी,
तंद्रा भगा दी।
देश भगा दी।
देश मेरा उठ पड़ा है,
स्वप्न झूठा पलक-पुतली से झड़ा है,
आँख फाड़े घूरता है
घृण्य, नग्न यथार्थ को
जो सामने आकर खड़ा है।
प्रांत, भाषा धर्म अर्थ-स्वार्थ का
जो वात रोग लगा हुआ था–
अंग जिससे अंग से बिलगा हुआ था...
एक उसका है लगा धक्का
कि वह गायब हुआ-सा लग रहा है,
हो रहा है प्रकट
मेरे देश का अब रूप सच्चा !
अज़दहे, हम किस क़दर तुझको सराहें,
दाहिना ही सिद्ध तू हमको हुआ है
गो कि चलता रहा बाएँ।
Saturday, July 3, 2010
सूरज को हंसने दो-Narender Dagar
सूरज जब हंसता है
लगता है
फिर कोई बादल बरसने को है
रहमत का फरिश्ता आने को है
जो निजात दिलाएगा
चांद के टेढ़ेपन से
निजवाद और
आतंकवाद से
फिर जरूर कोई चिड़िया
चहकेगी
मेरे आंगन में
जो सूरज के कुपित होने पर
सूना हो गया था
प्यासा स्वार्थ
जगत पर कुएं की
प्यासा बैठा है
उसे डोलची की जरूरत है
जो नायक के पास रह गई
वह अश्वमेघ के लिए उसकी प्रतीक्षा किए बिना
अपने क्षेत्र में चला गया
जहां इन दिनों चुनावी समर जोरों पर है
जिसे उन दोनों ने अश्वमेघ नाम दिया
सूखे प्यासे होंठों पर जीभ फिराता
प्यासा कुएं में झांक रहा है
उसे भीतर दिखाई दे रहा है
स्वार्थी
अपना ही अक्स
जो नेता को वोट देने के बाद पछता रहा है
कुआं उसे सूखा लग रहा है
लोमड़ी की तरह
निराश है वह
चालाक प्यासा वोटर
तपने के बाद
पास बैठकर बता
देखता है इतनी दूर
सूरज बादलों में
हंसकर कह रहा है
तपता रह
मेरी तरह
एक दिन
फिर
छंट जाएंगे
दुखों के बादल
आधा चांद
आधा चांद चांदनी बिखेरता
वह बच्चा उसे देखता
बच्चा युवा हो गया
चांद अब भी आधा रहा
उसकी चांदनी वैसी शीतल
उतनी ही चंचल
मगर बच्चे की चंचलता
उसकी आभा
उसका उल्लास
न जाने कहां खो गया
वह उसे ढूंढ़ने में दिन गुजार देता
फिर किराये के मकान की छत पर
देखता चांद को
वह मुस्करा रहा होता
वैसे ही, जैसे उसके बचपन में मुस्कुराता था
वह अपनी डिग्रियां उठाए
छत के कोने में बैठ जाता
ट्रांजिस्टर पर खबरे सुनता
दूसरे दिन फिर नौकरी की तलाश में निकलता
अपने चांद-से मुन्ने को चूमता
उसे कहता
बेटा आधा चांद पूर्णिमा को पूरा दिखेगा
हमारी अमावस बस अब पूर्णिमा में बदलेगी
अबोध मुन्ना मुस्कुरा देता, बिना कुछ समझे
क्रम चलता रहा
मुन्ना अपने मुन्ने को
वही कह रहा है
जो कभी मैंने उसे कहा था
लगता है
फिर कोई बादल बरसने को है
रहमत का फरिश्ता आने को है
जो निजात दिलाएगा
चांद के टेढ़ेपन से
निजवाद और
आतंकवाद से
फिर जरूर कोई चिड़िया
चहकेगी
मेरे आंगन में
जो सूरज के कुपित होने पर
सूना हो गया था
प्यासा स्वार्थ
जगत पर कुएं की
प्यासा बैठा है
उसे डोलची की जरूरत है
जो नायक के पास रह गई
वह अश्वमेघ के लिए उसकी प्रतीक्षा किए बिना
अपने क्षेत्र में चला गया
जहां इन दिनों चुनावी समर जोरों पर है
जिसे उन दोनों ने अश्वमेघ नाम दिया
सूखे प्यासे होंठों पर जीभ फिराता
प्यासा कुएं में झांक रहा है
उसे भीतर दिखाई दे रहा है
स्वार्थी
अपना ही अक्स
जो नेता को वोट देने के बाद पछता रहा है
कुआं उसे सूखा लग रहा है
लोमड़ी की तरह
निराश है वह
चालाक प्यासा वोटर
तपने के बाद
पास बैठकर बता
देखता है इतनी दूर
सूरज बादलों में
हंसकर कह रहा है
तपता रह
मेरी तरह
एक दिन
फिर
छंट जाएंगे
दुखों के बादल
आधा चांद
आधा चांद चांदनी बिखेरता
वह बच्चा उसे देखता
बच्चा युवा हो गया
चांद अब भी आधा रहा
उसकी चांदनी वैसी शीतल
उतनी ही चंचल
मगर बच्चे की चंचलता
उसकी आभा
उसका उल्लास
न जाने कहां खो गया
वह उसे ढूंढ़ने में दिन गुजार देता
फिर किराये के मकान की छत पर
देखता चांद को
वह मुस्करा रहा होता
वैसे ही, जैसे उसके बचपन में मुस्कुराता था
वह अपनी डिग्रियां उठाए
छत के कोने में बैठ जाता
ट्रांजिस्टर पर खबरे सुनता
दूसरे दिन फिर नौकरी की तलाश में निकलता
अपने चांद-से मुन्ने को चूमता
उसे कहता
बेटा आधा चांद पूर्णिमा को पूरा दिखेगा
हमारी अमावस बस अब पूर्णिमा में बदलेगी
अबोध मुन्ना मुस्कुरा देता, बिना कुछ समझे
क्रम चलता रहा
मुन्ना अपने मुन्ने को
वही कह रहा है
जो कभी मैंने उसे कहा था
कोटर के आंसू-Narender Dagar
पेड़ पर शाखाहीन होने लगा है
पत्ते तेज हवाओं से झड़ गए हैं
नभचरों ने बुन लिया है
फिर दूर कहीं एक नींड़
किसी हरेभरे बरगद की
घनी कौपलों के बीच
चील-कौओं से बचने के लिए
ठूंठ बनते जा रहे पेड़ के पास
तने से निकलते आंसुओं के सिवाय
कुछ नहीं बचा
आंसू भी निर्दयी लक़ड़हारा
गोंद समझकर ले जा रहा है
पत्ते तेज हवाओं से झड़ गए हैं
नभचरों ने बुन लिया है
फिर दूर कहीं एक नींड़
किसी हरेभरे बरगद की
घनी कौपलों के बीच
चील-कौओं से बचने के लिए
ठूंठ बनते जा रहे पेड़ के पास
तने से निकलते आंसुओं के सिवाय
कुछ नहीं बचा
आंसू भी निर्दयी लक़ड़हारा
गोंद समझकर ले जा रहा है
दादा पोते के जमाने- Narender Dagar
तपती दुपहरी हो या छतों पर गुजरती रातें
दादे पोते को नींद नहीं आती
दादा बताता है अपने जमाने की बातें
पोता सुनाता है आज के हालात
कितने ही सालों का फर्क
गिनते हैं दोनों
नहीं मिलता सुखी दिनों का इतिहास
दोनों दुखियारों को
बहता रहता है लोगों की आंखों से नीर रक्तवर्णी
जैसे पहती है आंखें मां की
भाइयों का बिछड़ना देख कर
त्रस्त होती हैं कुशासन के अधीन जमीनी प्रजा रानी
तपती दुपहरी हो या छतों पर गुजरती रातें
दादे पोते को नींद नहीं आती
दादा बताता है अपने जमाने की बातें
पोता सुनाता है आज के हालात
दादे पोते को नींद नहीं आती
दादा बताता है अपने जमाने की बातें
पोता सुनाता है आज के हालात
कितने ही सालों का फर्क
गिनते हैं दोनों
नहीं मिलता सुखी दिनों का इतिहास
दोनों दुखियारों को
बहता रहता है लोगों की आंखों से नीर रक्तवर्णी
जैसे पहती है आंखें मां की
भाइयों का बिछड़ना देख कर
त्रस्त होती हैं कुशासन के अधीन जमीनी प्रजा रानी
तपती दुपहरी हो या छतों पर गुजरती रातें
दादे पोते को नींद नहीं आती
दादा बताता है अपने जमाने की बातें
पोता सुनाता है आज के हालात
Friday, July 2, 2010
रद्दे-अ़मल१- Narender
रद्दे-अ़मल१
चन्द कलियां निशात की२ चुनकर
मुद्दतों महवे-यास३ रहता हूं
तेरा मिलना खुशी की बात सही
तुझ से मिलकर उदास रहता हूं
–––––––––––––----------------------------
१. प्रतिक्रिया २. आनन्द की ३. ग़म में डूबा हुआ
एक मन्ज़र१
उफक़ के२ दरीचे से किरनों ने झांका
फ़ज़ा३ तन गई, रास्ते मुस्कुराये
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाख़सारों ने४ घूंघट उठाये
परिन्दों की आवाज़ से खेत चौंके
पुरअसरार५ लै में रहट गुनगुनाये
हसीं शबनम-आलूद६ पगडंडियों से
लिपटने लगे-सब्ज़ पेड़ों के साये
वो दूर एक टीले पे आंचल सा झलका
तसव्वुर में७ लाखों दिये झिलमिलाये
–––––––––––––––––------------------------
१. दृश्य २. क्षितिज के ३. वातावरण ४. शाखाओं ने ५. रहस्यपूर्ण ६. ओस-भरी ७. कल्पना में
एक वाक़या१
अंधियारी रात के आंगन में ये सुबह के क़दमों की आहट
ये भीगी-भीगी सर्द हवा, ये हल्की-हल्की धंधलाहट
गाड़ी में हूं तनहा२ महवे-सफ़र३ और नींद नहीं है आंखों में
भूले-बिसरे रूमानों के ख़्वाबों की ज़मीं है आंखों में
अगले दिन हाथ हिलाते हैं, पिछली पीतें याद आती हैं
गुमगश्ता४ ख़ुशियां आंखों में आंसू बनकर लहराती है
सीने वे वीरां गोशों में५ इक टीस-सी करवट लेती है
नाकाम उमंगें रोती हैं उम्मीद सहारे देती है
वो राहें ज़हन में६ घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूं
कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूं
–––––––––––––––––-----------------------------------------
१. घटना २. अकेला ३. यात्रा-मग्न ४. खोई हुई ५. वीरान कोनों में ६. मस्तिष्क में
यकसूई१
अहदे-गुमगश्ता की तसवीर दिखाती क्यों हो ?
एक आवारा-ए-मंज़िल को२ सताती क्यों हो ?
वो हसीं अहद३ जो शर्मिंदा-ए-ईफ़ा न हुआ४,
उस हंसी अहद का मफ़हूम जताती क्यों हो ?
ज़िन्दगी शो’ला-ए-बेबाक५ बना लो अपनी,
ख़ुद को ख़ाकस्तरे-ख़ामोश६ बनाती क्यों हो ?
मैं तसव्वुफ़ के७ मराहिल का८ नहीं हूं क़ायल९,
मेरी तसवीर पे तुम फूल चढ़ाती क्यों हो ?
कौन कहता है कि आहें हैं मसाइब का१॰ इलाज,
जान को अपनी अ़बस११ रोग लगाती क्यों हो ?
एक सरकश से१२ मोहब्बत की तमन्ना रखकर,
ख़ुद को आईन के१३ फंदे में फंसाती क्यों हो ?
मैं समझता हूं तक़ददुस१४ को तमददुन१५ का फ़रेब,
तुम रसूमात को१६ ईमान बनाती क्यों हो ?
जब तुम्हें मुझसे ज़ियादा है ज़माने का ख़याल,
फिर मेरी याद में यूं अश्क१७ बहाती क्यों हो ?
त़ुम में हिम्मत है तो दुनिया से बगावत कर दो।
वर्ना मां-बाप जहां कहते हैं शादी कर लो।।
चन्द कलियां निशात की२ चुनकर
मुद्दतों महवे-यास३ रहता हूं
तेरा मिलना खुशी की बात सही
तुझ से मिलकर उदास रहता हूं
–––––––––––––----------------------------
१. प्रतिक्रिया २. आनन्द की ३. ग़म में डूबा हुआ
एक मन्ज़र१
उफक़ के२ दरीचे से किरनों ने झांका
फ़ज़ा३ तन गई, रास्ते मुस्कुराये
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाख़सारों ने४ घूंघट उठाये
परिन्दों की आवाज़ से खेत चौंके
पुरअसरार५ लै में रहट गुनगुनाये
हसीं शबनम-आलूद६ पगडंडियों से
लिपटने लगे-सब्ज़ पेड़ों के साये
वो दूर एक टीले पे आंचल सा झलका
तसव्वुर में७ लाखों दिये झिलमिलाये
–––––––––––––––––------------------------
१. दृश्य २. क्षितिज के ३. वातावरण ४. शाखाओं ने ५. रहस्यपूर्ण ६. ओस-भरी ७. कल्पना में
एक वाक़या१
अंधियारी रात के आंगन में ये सुबह के क़दमों की आहट
ये भीगी-भीगी सर्द हवा, ये हल्की-हल्की धंधलाहट
गाड़ी में हूं तनहा२ महवे-सफ़र३ और नींद नहीं है आंखों में
भूले-बिसरे रूमानों के ख़्वाबों की ज़मीं है आंखों में
अगले दिन हाथ हिलाते हैं, पिछली पीतें याद आती हैं
गुमगश्ता४ ख़ुशियां आंखों में आंसू बनकर लहराती है
सीने वे वीरां गोशों में५ इक टीस-सी करवट लेती है
नाकाम उमंगें रोती हैं उम्मीद सहारे देती है
वो राहें ज़हन में६ घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूं
कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूं
–––––––––––––––––-----------------------------------------
१. घटना २. अकेला ३. यात्रा-मग्न ४. खोई हुई ५. वीरान कोनों में ६. मस्तिष्क में
यकसूई१
अहदे-गुमगश्ता की तसवीर दिखाती क्यों हो ?
एक आवारा-ए-मंज़िल को२ सताती क्यों हो ?
वो हसीं अहद३ जो शर्मिंदा-ए-ईफ़ा न हुआ४,
उस हंसी अहद का मफ़हूम जताती क्यों हो ?
ज़िन्दगी शो’ला-ए-बेबाक५ बना लो अपनी,
ख़ुद को ख़ाकस्तरे-ख़ामोश६ बनाती क्यों हो ?
मैं तसव्वुफ़ के७ मराहिल का८ नहीं हूं क़ायल९,
मेरी तसवीर पे तुम फूल चढ़ाती क्यों हो ?
कौन कहता है कि आहें हैं मसाइब का१॰ इलाज,
जान को अपनी अ़बस११ रोग लगाती क्यों हो ?
एक सरकश से१२ मोहब्बत की तमन्ना रखकर,
ख़ुद को आईन के१३ फंदे में फंसाती क्यों हो ?
मैं समझता हूं तक़ददुस१४ को तमददुन१५ का फ़रेब,
तुम रसूमात को१६ ईमान बनाती क्यों हो ?
जब तुम्हें मुझसे ज़ियादा है ज़माने का ख़याल,
फिर मेरी याद में यूं अश्क१७ बहाती क्यों हो ?
त़ुम में हिम्मत है तो दुनिया से बगावत कर दो।
वर्ना मां-बाप जहां कहते हैं शादी कर लो।।
रद्दे-अ़मल१- Narender dagar
रद्दे-अ़मल१
चन्द कलियां निशात की२ चुनकर
मुद्दतों महवे-यास३ रहता हूं
तेरा मिलना खुशी की बात सही
तुझ से मिलकर उदास रहता हूं
–––––––––––––----------------------------
१. प्रतिक्रिया २. आनन्द की ३. ग़म में डूबा हुआ
एक मन्ज़र१
उफक़ के२ दरीचे से किरनों ने झांका
फ़ज़ा३ तन गई, रास्ते मुस्कुराये
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाख़सारों ने४ घूंघट उठाये
परिन्दों की आवाज़ से खेत चौंके
पुरअसरार५ लै में रहट गुनगुनाये
हसीं शबनम-आलूद६ पगडंडियों से
लिपटने लगे-सब्ज़ पेड़ों के साये
वो दूर एक टीले पे आंचल सा झलका
तसव्वुर में७ लाखों दिये झिलमिलाये
–––––––––––––––––------------------------
१. दृश्य २. क्षितिज के ३. वातावरण ४. शाखाओं ने ५. रहस्यपूर्ण ६. ओस-भरी ७. कल्पना में
एक वाक़या१
अंधियारी रात के आंगन में ये सुबह के क़दमों की आहट
ये भीगी-भीगी सर्द हवा, ये हल्की-हल्की धंधलाहट
गाड़ी में हूं तनहा२ महवे-सफ़र३ और नींद नहीं है आंखों में
भूले-बिसरे रूमानों के ख़्वाबों की ज़मीं है आंखों में
अगले दिन हाथ हिलाते हैं, पिछली पीतें याद आती हैं
गुमगश्ता४ ख़ुशियां आंखों में आंसू बनकर लहराती है
सीने वे वीरां गोशों में५ इक टीस-सी करवट लेती है
नाकाम उमंगें रोती हैं उम्मीद सहारे देती है
वो राहें ज़हन में६ घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूं
कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूं
–––––––––––––––––-----------------------------------------
१. घटना २. अकेला ३. यात्रा-मग्न ४. खोई हुई ५. वीरान कोनों में ६. मस्तिष्क में
यकसूई१
अहदे-गुमगश्ता की तसवीर दिखाती क्यों हो ?
एक आवारा-ए-मंज़िल को२ सताती क्यों हो ?
वो हसीं अहद३ जो शर्मिंदा-ए-ईफ़ा न हुआ४,
उस हंसी अहद का मफ़हूम जताती क्यों हो ?
ज़िन्दगी शो’ला-ए-बेबाक५ बना लो अपनी,
ख़ुद को ख़ाकस्तरे-ख़ामोश६ बनाती क्यों हो ?
मैं तसव्वुफ़ के७ मराहिल का८ नहीं हूं क़ायल९,
मेरी तसवीर पे तुम फूल चढ़ाती क्यों हो ?
कौन कहता है कि आहें हैं मसाइब का१॰ इलाज,
जान को अपनी अ़बस११ रोग लगाती क्यों हो ?
एक सरकश से१२ मोहब्बत की तमन्ना रखकर,
ख़ुद को आईन के१३ फंदे में फंसाती क्यों हो ?
मैं समझता हूं तक़ददुस१४ को तमददुन१५ का फ़रेब,
तुम रसूमात को१६ ईमान बनाती क्यों हो ?
जब तुम्हें मुझसे ज़ियादा है ज़माने का ख़याल,
फिर मेरी याद में यूं अश्क१७ बहाती क्यों हो ?
त़ुम में हिम्मत है तो दुनिया से बगावत कर दो।
वर्ना मां-बाप जहां कहते हैं शादी कर लो।।
चन्द कलियां निशात की२ चुनकर
मुद्दतों महवे-यास३ रहता हूं
तेरा मिलना खुशी की बात सही
तुझ से मिलकर उदास रहता हूं
–––––––––––––----------------------------
१. प्रतिक्रिया २. आनन्द की ३. ग़म में डूबा हुआ
एक मन्ज़र१
उफक़ के२ दरीचे से किरनों ने झांका
फ़ज़ा३ तन गई, रास्ते मुस्कुराये
सिमटने लगी नर्म कुहरे की चादर
जवां शाख़सारों ने४ घूंघट उठाये
परिन्दों की आवाज़ से खेत चौंके
पुरअसरार५ लै में रहट गुनगुनाये
हसीं शबनम-आलूद६ पगडंडियों से
लिपटने लगे-सब्ज़ पेड़ों के साये
वो दूर एक टीले पे आंचल सा झलका
तसव्वुर में७ लाखों दिये झिलमिलाये
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१. दृश्य २. क्षितिज के ३. वातावरण ४. शाखाओं ने ५. रहस्यपूर्ण ६. ओस-भरी ७. कल्पना में
एक वाक़या१
अंधियारी रात के आंगन में ये सुबह के क़दमों की आहट
ये भीगी-भीगी सर्द हवा, ये हल्की-हल्की धंधलाहट
गाड़ी में हूं तनहा२ महवे-सफ़र३ और नींद नहीं है आंखों में
भूले-बिसरे रूमानों के ख़्वाबों की ज़मीं है आंखों में
अगले दिन हाथ हिलाते हैं, पिछली पीतें याद आती हैं
गुमगश्ता४ ख़ुशियां आंखों में आंसू बनकर लहराती है
सीने वे वीरां गोशों में५ इक टीस-सी करवट लेती है
नाकाम उमंगें रोती हैं उम्मीद सहारे देती है
वो राहें ज़हन में६ घूमती हैं जिन राहों से आज आया हूं
कितनी उम्मीद से पहुंचा था, कितनी मायूसी लाया हूं
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१. घटना २. अकेला ३. यात्रा-मग्न ४. खोई हुई ५. वीरान कोनों में ६. मस्तिष्क में
यकसूई१
अहदे-गुमगश्ता की तसवीर दिखाती क्यों हो ?
एक आवारा-ए-मंज़िल को२ सताती क्यों हो ?
वो हसीं अहद३ जो शर्मिंदा-ए-ईफ़ा न हुआ४,
उस हंसी अहद का मफ़हूम जताती क्यों हो ?
ज़िन्दगी शो’ला-ए-बेबाक५ बना लो अपनी,
ख़ुद को ख़ाकस्तरे-ख़ामोश६ बनाती क्यों हो ?
मैं तसव्वुफ़ के७ मराहिल का८ नहीं हूं क़ायल९,
मेरी तसवीर पे तुम फूल चढ़ाती क्यों हो ?
कौन कहता है कि आहें हैं मसाइब का१॰ इलाज,
जान को अपनी अ़बस११ रोग लगाती क्यों हो ?
एक सरकश से१२ मोहब्बत की तमन्ना रखकर,
ख़ुद को आईन के१३ फंदे में फंसाती क्यों हो ?
मैं समझता हूं तक़ददुस१४ को तमददुन१५ का फ़रेब,
तुम रसूमात को१६ ईमान बनाती क्यों हो ?
जब तुम्हें मुझसे ज़ियादा है ज़माने का ख़याल,
फिर मेरी याद में यूं अश्क१७ बहाती क्यों हो ?
त़ुम में हिम्मत है तो दुनिया से बगावत कर दो।
वर्ना मां-बाप जहां कहते हैं शादी कर लो।।
एक एहसास – Narender dagar
हाथ थाम सके, न पकड़ सके दामन,
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई
मीना जी चली गईं। कहती थीं :
राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हा
और जाते हुए सचमुच सारे जहान को तन्हा कर गईं; एक दौर का दौर अपने साथ लेकर चली गईं। लगता है, दुआ में थीं। दुआ खत्म हुई, आमीन कहा, उठीं, और चली गईं। जब तक ज़िन्दा थीं, सरापा दिल की तरह ज़िन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। कहती रहीं :
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता,
धज्जी-धज्जी रात मिली।
जिसका जितना आंचल था,
उतनी ही सौग़ात मिली।।
जब चाहा दिल को समझें,
हंसने की आवाज़ सुनी।
जैसे कोई कहता हो, लो
फिर तुमको अब मात मिली।।
बातें कैसी ? घातें क्या ?
चलते रहना आठ पहर।
दिल-सा साथी जब पाया,
बेचैनी भी साथ मिली।।
समन्दर की तरह गहरा था दिल। वह छलक गया, मर गया और बन्द हो गया, लगता यही कि दर्द लावारिस हो गए, यतीम हो गए, उन्हें अपनानेवाला कोई नहीं रहा। मैंने एक बार उनका पोर्ट्रेट नज़्म करके दिया था उन्हें। लिखा था :
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा-लम्हा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक सांस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तांगों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।
पढ़कर हंस पड़ीं। कहने लगीं–‘जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?’
उन्हीं का एक पन्ना है मेरे सामने खुला हुआ। लिखा है :
प्यार सोचा था, प्यार ढूंढ़ा था
ठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूंढ़ी
सोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टी
तपते, नोकीले, नंगे रस्तों पर
नंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,
धूप में सेंकीं छांव की चोटें
छांव में देखे धूप के छाले
अपने अन्दर महक रहा था प्यार–
ख़ुद से बाहर तलाश करते थे
बाहर से अन्दर का यह सफ़र कितना लम्बा था कि उसे तय करने में उन्हें एक उम्र गुज़ारनी पड़ी। इस दौरान, रास्ते में जंगल भी आए और दश्त भी, वीराने भी और कोहसार भी। इसलिए कहती थीं :
आबलापा१ कोई दश्त२ में आया होगा
वर्ना आंधी में दीया किसने जलाया होगा ?
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बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई
मीना जी चली गईं। कहती थीं :
राह देखा करेगा सदियों तक,
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हा
और जाते हुए सचमुच सारे जहान को तन्हा कर गईं; एक दौर का दौर अपने साथ लेकर चली गईं। लगता है, दुआ में थीं। दुआ खत्म हुई, आमीन कहा, उठीं, और चली गईं। जब तक ज़िन्दा थीं, सरापा दिल की तरह ज़िन्दा रहीं। दर्द चुनती रहीं, बटोरती रहीं और दिल में समोती रहीं। कहती रहीं :
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता,
धज्जी-धज्जी रात मिली।
जिसका जितना आंचल था,
उतनी ही सौग़ात मिली।।
जब चाहा दिल को समझें,
हंसने की आवाज़ सुनी।
जैसे कोई कहता हो, लो
फिर तुमको अब मात मिली।।
बातें कैसी ? घातें क्या ?
चलते रहना आठ पहर।
दिल-सा साथी जब पाया,
बेचैनी भी साथ मिली।।
समन्दर की तरह गहरा था दिल। वह छलक गया, मर गया और बन्द हो गया, लगता यही कि दर्द लावारिस हो गए, यतीम हो गए, उन्हें अपनानेवाला कोई नहीं रहा। मैंने एक बार उनका पोर्ट्रेट नज़्म करके दिया था उन्हें। लिखा था :
शहतूत की शाख़ पे बैठी मीना
बुनती है रेशम के धागे
लम्हा-लम्हा खोल रही है
पत्ता-पत्ता बीन रही है
एक-एक सांस बजाकर सुनती है सौदायन
एक-एक सांस को खोल के, अपने तन
पर लिपटाती जाती है
अपने ही तांगों की क़ैदी
रेशम की यह शायर इक दिन
अपने ही तागों में घुटकर मर जाएगी।
पढ़कर हंस पड़ीं। कहने लगीं–‘जानते हो न, वे तागे क्या हैं ? उन्हें प्यार कहते हैं। मुझे तो प्यार से प्यार है। प्यार के एहसास से प्यार है, प्यार के नाम से प्यार है। इतना प्यार कोई अपने तन से लिपटाकर मर सके, तो और क्या चाहिए ?’
उन्हीं का एक पन्ना है मेरे सामने खुला हुआ। लिखा है :
प्यार सोचा था, प्यार ढूंढ़ा था
ठंडी-ठंडी-सी हसरतें ढूंढ़ी
सोंधी-सोंधी-सी, रूह की मिट्टी
तपते, नोकीले, नंगे रस्तों पर
नंगे पैरों ने दौड़कर, थमकर,
धूप में सेंकीं छांव की चोटें
छांव में देखे धूप के छाले
अपने अन्दर महक रहा था प्यार–
ख़ुद से बाहर तलाश करते थे
बाहर से अन्दर का यह सफ़र कितना लम्बा था कि उसे तय करने में उन्हें एक उम्र गुज़ारनी पड़ी। इस दौरान, रास्ते में जंगल भी आए और दश्त भी, वीराने भी और कोहसार भी। इसलिए कहती थीं :
आबलापा१ कोई दश्त२ में आया होगा
वर्ना आंधी में दीया किसने जलाया होगा ?
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