Monday, November 17, 2014

श्रृँगार लिखूं या अंगार लिखूं !!

हर नौजवान कॆ हाथों मॆं, बस बॆकारी का हाला !
हर सीनॆं मॆं असंतोष की, धधक रही है
ज्वाला !!

नारी कॆ माथॆ की बिंदिया, ना जानॆं कब
रॊ दॆ !
वॊ बूढी मैया अपना बॆटा,क्या जानॆं कब
खॊ दॆ !!

बिलख रहा है राखी मॆ, कितनीं, बहनॊं का प्यार लिखूं !

धन्य धन्य वह क्षत्राणी जिनकॊ वैभव नॆं पाला था !
आ पड़ी आन पर जब, सबनॆं जौहर कर डाला था !!

कल्मषता का काल-चक्र, पलक झपकतॆ रॊका था !
इतिहास गवाही दॆता है, श्रृँगार अग्नि मॆं
झॊंका था !!

हल्दीघाटी कॆ कण-कण मॆं, वीरॊं की शॊणित धार लिखूं !
कविता कॆ रस-प्रॆमी बॊलॊ, श्रृँगार लिखूं
या अंगार लिखूं !!

श्रृँगार सजॆ महलॊं मॆं वह,तड़ित बालिका बिजली थी !
श्रृँगार छॊड़ कर महारानी, रण भूमि मॆं
निकली थी !!

बुंदॆलॆ हरबॊलॊं कॆ मुंह की, अमिट ज़ुबानी लिखी गई !
खूब लड़ी मर्दानी थी वह, झांसी की रानी लिखी गई !!

उन चूड़ी वालॆ हाँथॊं मॆं, मैं चमक उठी तलवार लिखूं !
कविता कॆ रस-प्रॆमी बॊलॊ,श्रृँगार लिखूं
या अंगार लिखूं !!

बॆटॆ कॆ सम्मुख मां नॆं, पाठ स्वराज्य
का बाँचा हॊगा !
मुगलॊं की छाती पर तब,वह शॆर मराठा नाँचा हॊगा !!

भगतसिंह की मां का दॆखॊ, सूना आंचल
श्रृँगार बना !
इतिहास रचा बॆटॆ नॆं जब, तपतॆ तपतॆ अंगार बना !!

कह रहीं शहीदॊं की सांसॆं,भारत की जय-
जयकार लिखूं !
कविता कॆ रस-प्रॆमी बॊलॊ,श्रृँगार लिखूं
या अंगार लिखूं !

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